‘राम’ का नाम क्या बचा पायेगा अक्षय की डूबती नैय्या?
राम के अस्तित्व पर सबसे अधिक सवाल अगर कहीं किये गये हैं, तो वो राम के देश भारत में ही किये गए है. उस देश में जहाँ राम आस्था हैं, विश्वास है. जन्म में राम हैं. मृत्यु में राम हैं. सुख में राम हैं. दुःख में राम हैं. फिर भी राम को अपने होने का प्रमाण देना होता है. राम जन्मभूमि की लड़ाई में भी उन्हें अदालत का सहारा लेना पड़ता है और अंत में अदालत उनके पक्ष जब निर्णय देती है, तब राम को उनकी जन्मभूमि मिलती है. ऐसा ही एक समय आया था जब इस देश की सरकार ने अदालत में हलफनामा देकर राम के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया था. वो समय था जब राम सेतु को तोड़ने की तैयारी चल रही थी. उस समय कि सरकार के अनुसार राम कहानियों, लोक श्रुतियों का हिस्सा हैं और जब राम ही नहीं हैं तो राम सेतु का निर्माण उनके द्वारा किया गया हो ऐसा भी संभव नहीं हैं. इसलिए उसको तोड़ा जाना किसी की भी आस्था के साथ खिलवाड़ नहीं है.
‘राम सेतु’ राम के प्रति लोगों की आस्था पर विज्ञान की मोहर लगाने की कहानी है. फिल्म का विषय तो व्यापक है लेकिन कहानी सिर्फ इतनी सी है. एक शिपिंग कंपनी का मालिक भारत सरकार की मदद से राम सेतु को सिर्फ इसलिए तोड़ना चाहता है कि उसके जहाज को कम दूरी तय करनी पड़े और उसका मुनाफा बढ़ सके. एक नास्तिक पुरातत्वविद आर्यन (अक्षय कुमार) अपनी एक रिपोर्ट में राम सेतु को प्राकृतिक बताता है और राम के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर देता है. मामला अदालत में है. अदालत दूसरे पक्ष को ये मौका देती है कि वो ये सिद्ध करे, राम सेतु प्राकृतिक नहीं है, उसको मनुष्य के द्वारा बनाया गया है. शिपिंग कंपनी का मालिक आर्यन की मदद से इस सेतु को प्रकृति द्वारा निर्मित सिद्ध करना चाहता है. आर्यन उसकी दी गयी सुविधाओं का लाभ उठाकर राम सेतु की वास्तविकता जानने की कोशिश करता है. ये खोज उसे श्रीलंका तक ले जाती है. जहाँ वो रावण का अस्तित्व सिद्ध करता है और जब ये सिद्ध हो जाता है कि रावण था तो यह भी तय है कि राम भी थे.
कहानी में कोई नवीनता नहीं है. हो भी कैसे सकती है, जब इस देश का बच्चा बच्चा ये बात जानता है कि राम थे, राम हैं, राम सदैव रहेंगे. लेकिन सिनेमा इस सत्य को अधिक लोगों तक ले जाने का का काम करता है. जिसका सदुपयोग निर्देशक अभिषेक शर्मा ने किया है. वास्तव में तर्क और विज्ञान के नाम पर अपनी जड़ो से कट गए युवाओं के लिए ये फिल्म उनके दृष्टिकोण में एक नया आयाम जोडती है. फिल्म में गहराई नहीं है. लगता है अधिक सावधानी बरतने का दबाव निर्देशक पर था. वरिष्ठ फिल्मकार चंद्रप्रकाश द्विवेदी जो इस फिल्म के रचनात्मक निर्देशक भी है. पृथ्वीराज की घनघोर असफलता से डरे हुए थे, इसलिए उन्होंने प्रचलित मान्यताओं से खेलना उचित नहीं समझा. यही अतिरिक्त सावधानी इस फिल्म को कमज़ोर करती है. हो सकता था अगर वो फिल्म में रावण के आस्तित्व को सिद्ध करने अधिक समय लगाते तो शायद फिल्म में नवीनता आती और उसकी रोचकता बनी रहती.
अभिनय पक्ष की बात करें तो आर्यन के किरदार में अक्षय कुमार किरदार को बस निभाते नज़र आते है. उम्र दिखने लगी है. थोड़े थके हुए भी लग रहे है. लगातार असफलता उन्हें जोखिम उठाने रोक रही है. जैकलीन फर्नांडिस, नुसरत भरुचा खानापूर्ति करती नज़र आती हैं. एपी के किरदार में सत्यदेव जमे हैं. लम्बे अंतराल के बाद प्रवेश राणा को बड़े परदे पर देखा गया. हालाँकि उनका किरदार भी दमदार नज़र नहीं आता.
फिल्म का छायांकन प्रभावशाली है. पार्श्वसंगीत प्रभाव छोड़ता है.
सच कहूँ तो ये फिल्म सफलता के लिए विज्ञान से अधिक आस्था पर निर्भर है. अगर लोगों की आस्था जागृत हो गयी तो फिल्म की सफलता सुनिश्चित है. तो लगातार असफलता का दंश झेल रहे अक्षय कुमार राम नाम की संजीवनी बूटी के सहारे सफलता का स्वाद एक बार फिर चख पायेंगे इस बात का निर्णय तो दर्शक लेंगे. लेकिन आस्था और विज्ञान दोनों मतों को मानने वालों के लिए ‘राम सेतु’ एक बार तो देखना बनता है.और हां, अंत में जब अदालत में रावण का अस्तित्व सिद्ध हुआ तब ही राम का अस्तित्व सिद्ध हुआ और ‘राम सेतु’ राम द्वारा बनाया गया है ये भी सिद्ध हुआ.