जनजातीय गौरव के इतिहास में नया अध्याय है द्रोपदी मुर्मू का राष्ट्रपति बनना-रवि पाराशर
रवि पाराशर
द्रोपदी मुर्मू भारत की 15वीं राष्ट्रपति बन गई हैं। संख्या बल के आधार पर एनडीए की उम्मीदवार द्रोपदी मुर्मू का चुना जाना तय ही था, लेकिन जिस तरह से विपक्षी पार्टियों के सांसदों और विधायकों ने उनके पक्ष में क्रॉस वोटिंग की है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले एनडीए की भविष्य की राह में बड़े रोड़े नहीं अभी नहीं अटक सके हैं।
दूसरी बड़ी बात इस चुनाव से यह स्पष्ट हुई है कि भारत में जनजातीय गौरव का पुनरोदय का सिसलिसा प्रारंभ हो गया है। द्रोपदी मुर्मू जनजातीय समाज से हैं और कई विपक्षी पार्टियों ने उन्हें इस कारण ही समर्थन दिया। कई विपक्षी सांसदों और विधायकों ने पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर इस कारण ही उन्हें वोट दिया है। देश स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव मना रहा है यानी 75वें वर्ष में भारत को जनजातीय समाज से पहला राष्ट्रपति मिला है।
याद करें कि पिछले वर्ष ही मोदी सरकार ने आदिवासियों के शौर्य के प्रतीक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भगवान बिरसा मुंडा की जयंती 15 नवंबर को हर साल जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की थी। अब द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद हम कह सकते हैं कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार की कथनी और करनी में अंतर नहीं होता। मुर्मू का देश के सर्वोच्च पद पर चुनाव इसका ही एक और सटीक उदाहरण है।
ब्रिटिश शासन काल में जनजातीय समाज के विकास पर बहुत ध्यान नहीं दिया गया। उस समय ईसाई मिशनरियों ने इस समाज को निशाना बनाना शुरू किया। मिशनरी को मनमाने ढंग से काम करने की छूट थी। उस समय से ही मिशनरी जनजातीय लोगों को बहला-फुसला कर, लालच देकर ईसाई धर्म अपनाने के षड्यंत्र बड़े पैमाने पर रच रही हैं। षड्यंत्र आज भी जारी हैं। लेकिन अब केंद्र की मोदी सरकार ने इस ओर ध्यान देना शुरू किया है, तो इसके अच्छे परिणाम आने की उम्मीद बंधी है। सामाजिक स्तर पर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन जनजातीय समाज के विकास के प्रयास में बड़े पैमाने पर जुटे हैं।
स्वतंत्रता के बाद जनजातीय समाज के विकास का मुद्दा उठा, तो सरकारी नौकरियों में आरक्षण समेत उसे कई तरह के वैधानिक संरक्षण दिए गए। सरकारों ने नियम-कायदे तो तय कर दिए, लेकिन उनके क्रियान्वयन पर बहुत ध्यान नहीं दिया, जिससे जनजातीय समाज पिछड़ा ही रह गया और ईसाई मिशनरी के कन्वर्जन के कुचक्र में फंसता रहा। अब ऐसे षड्यंत्र भी सामने आ रहे हैं कन्वर्जन के बाद भी जनजातीय लोगों के ईसाई नाम नहीं रखे जा रहे हैं, ताकि वे नियमानुसार आरक्षण समेत दूसरे सरकारी लाभ भी ले सकें। सामाजिक संगठनों के प्रयासों के कारण कन्वर्ट हो चुके बहुत से जनजातीय लोग परावर्तन भी कर रहे हैं। कुल मिलाकर जनजातीय समाज को विकास की मुख्यधारा में शामिल करने के प्रयास अब क्रियान्वयन की ठोस धरती पर उतरने चाहिए और द्रोपदी मुर्मू का राष्ट्रपति पद पर चयन इसका सटीक प्रारंभ बिंदु हो सकता है।
द्रोपदी मुर्मू के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद जिस तरह से देश के सभी जनजातीय समूहों, कलाकारों ने उनके आवास पर पारंपरिक लोकनृत्यों के माध्यम से अपनी प्रसन्नता व्यक्त की, ऐसी तस्वीरें 75 साल के इतिहास में पहली बार दिखाई दीं। भारत का मूल मंत्र अनेकता में एकता स्पष्ट तौर पर साकार होता हुआ दिखाई दिया। जनजातीय समूहों की सकारात्मक प्रतिक्रिया सभी जनजातीय बहुल राज्यों की तरफ से आई। द्रोपदी मुर्मू ओडिशा से आती हैं। ऐसा नहीं हुआ कि सिर्फ़ ओडिशा के जनजातीय समूहों ने प्रसन्नता व्यक्त की हो। बल्कि पूर्वोत्तर समेत देश के सभी जनजातीय समूह दिल्ली की सड़कों पर और द्रोपदी के अस्थाई आवास पर दिखाई दिए।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भार में जनजातीय आबादी 10 करोड़, 42 लाख से अधिक है। यह कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत है। जनगणना को 10 वर्ष हो चुके हैं। अब जनजातीय जनसंख्या में कितनी बढ़ोतरी हुई है, यह तो अगली जनगणना से ही पता लगेगा, लेकिन आबादी बढ़ी ही होगी, इतना तय है। भारत में पांच व्यापक जनजातीय क्षेत्रीय समूह हैं। ये हैं हिमालयी क्षेत्र, जिसमें पूर्वोत्तर के राज्य आते हैं। मध्य क्षेत्र, जिसमें बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य आते हैं। मध्य क्षेत्र में भारत के 55 प्रतिशत से अधिक जनजातीय लोग रहते हैं। पश्चिमी क्षेत्र, जिसमें राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, दादरा और नगर हवेली आते हैं। दक्षिणी क्षेत्र, जिसमें आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल आते हैं। साथ ही द्वीपीय क्षेत्र, जिसमें बंगाल की खाड़ी में अंडमान और निकोबार के अलावा अरब सागर में लक्षद्वीप आता है।
भारत के इतने बड़े भू-भाग में निवास करने वाली भारत की 8.6 से अधिक आबादी विकास की गति से दूर रहे, तो यह सही अर्थों में विकास नहीं कहा जा सकता। यही कारण है कि केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद और पहले से ही बीजेपी शासित राज्यों में जनजातीय विकास की नई इबारत लिखना शुरू किया गया। न केवल क्षेत्रों के बुनियादी ढांचे पर ध्यान दिया गया, बल्कि भाषा और संस्कृति को भी नए सिरे से सम्मानित और संरक्षित करने का काम किया गया। उदाहरण के तौर पर झारखंड की रघुवरदास सरकार ने संथाली भाषा को सम्मान दिलाने के लिए बहुत से काम किए। केंद्र सरकार के सहयोग से क्षेत्र के रेलवे स्टेशनों पर संथाली भाषा में उद्घोषणाएं शुरू कराई गईं। विकास, भाषा, संस्कृति के संरक्षण के लिए और भी कई महत्वपूर्ण काम जनजातीय आबादी वाले क्षेत्रों में शुरू किए गए हैं, जिनके सार्थक परिणाम दिखाई पड़ने भी लगे हैं।
अब द्रोपदी मुर्मू को देश के सर्वोच्च पद पर आसीन कर एनडीए ने नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। बड़ी-बड़ी बातें करना अलग बात है, उन्हें अमल में लाना अलग बात है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले एनडीए ने सिद्ध किया है कि अंत्योदय का सपना अवश्य पूरा किया जाएगा। मुर्मू के महामहिम बनने से न केवल वंचित वर्ग को नई ऊर्जा मिली है, बल्कि देश की महिला शक्ति को भी नई प्रेरणा मिली है।