वो देव साहब थे
फिल्मी दुनिया में कई सितारे चमके। लेकिन एक सितारा ऐसा है जिसकी चमक शायद कभी कम नहीं होगी। वो नाम है – देव आनंद। आज देवानंद का जन्म दिवस है। खास बात ये है कि आज उनके जन्म का शताब्दी वर्ष शुरु हो रहा है। पंजाब के गुरदासपुर में (जो अब पाकिस्तान में पड़ता है) 26 सिंतबर 1923 को जन्मे देवानंद को फिल्मों में उनके योगदान के लिए पद्म-भूषण और दादा साहब फाल्के जैसे बड़े अवार्ड से नवाजा गया। लेकिन हिन्दी सिनेमा के इतिहास में उनका व्यक्तित्व इतना विशाल है कि जिनके बारे में कहा जा सकता है कि सम्मान भी ऐसे व्यक्ति के पास जाकर सम्मानित महसूस करते हैं। उन्होंने हिन्दी सिनेमा के लिए कई नयी परिभाषाएं गढ़ीं।
उन्हें आज भी फिल्मी दुनिया का सबसे स्टाइलिश स्टार माना जाता है। आज देव साहब भले ही हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी अदाएं, उनका अंदाज आज भी हमारी यादों में ताजा है। उन्होंने कभी भी सह-नायक की भूमिका नहीं निभायी। वो हमेशा मुख्य भूमिका में ही पर्दे पर दिखे। वो हमेशा सदाबहार रहे। एक ऐसा नायक जिसने शायद बूढ़े होने से ही इंकार कर दिया था।
उनकी खासियत ये रही कि कई पीढ़ियां उनकी दिवानी रही। हमारी पीढ़ी से उनका पहला परिचय टीवी के छोटे पर्दे ने कराया। वो अस्सी के दशक के अंतिम कुछ साल रहे होंगे। 1982 में दूरदर्शन ने अपना राष्ट्रीय प्रसारण शुरु किया था। इसके बाद अगले कुछ सालों में टीवी ने धीरे-धीरे हर घर में अपनी जगह बना ली थी। उस वक्त आज जैसी सुविधा नहीं थी कि जब मन चाहे आप अपने टीवी पर फिल्म देख सकते हैं। आज सैटेलाइट चैनल के साथ-साथ नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम जैसे कई ओटीटी प्लेटफार्म भी मौजूद हैं। लेकिन उस वक्त दूरदर्शन पर पूरे सप्ताह में, रविवार के रविवार, सिर्फ एक फिल्म आती थी। बच्चों में फिल्म देखने का एक अलग ही क्रेज होता था। ज्यादा समझ में तो कुछ नहीं आता था लेकिन आस-पास के बच्चों के साथ फिल्म देखने का उत्साह कुछ अलग होता था। देव आनंद की फिल्में जब आती तो बड़े उसे बहुत चाव से देखते थे। ऐसे में देव आनंद से पहला परिचय तब ही हुआ। उस वक्त की दूसरी फिल्मों की तरह उनकी फिल्मों में रोना-धोना ज्यादा नहीं होता था। ऐसे में उनको देखने में मन लगता था। ज्यादा तो याद नहीं लेकिन एक बार शायद दूरदर्शन ने देवानंद की फिल्मों की पूरी सीरिज़ भी दिखायी थी। ये फिल्में 9-10 बजे के करीब शुरु होकर देर रात में खत्म होती थी। दूरदर्शन का ये नया प्रयोग था। देवानंद मेरे पिताजी के फेवरेट स्टार में शुमार थे। ऐसे में उनकी फिल्में देर रात तक जग कर देखी जाती। हमलोग भी इस मौके का फायदा उठा लेते थे। धीरे-धीरे देवानंद पसंद आने लगे। उनका स्टाइलिश अंदाज और उनकी डायलॉग डिलीवरी सबसे अलग होती। एक लाइन में कहे तो उनको देखने में मजा बहुत आता था जो आज भी बरकरार है।
देवानंद दरअसल अपने वक्त से बहुत आगे के व्यक्ति थे। ये बात उनके हर पहलू में दिखती है। उनकी फिल्में भी अपने वक्त से आगे की लगती हैं। यही कारण है कि अपने वक्त के दूसरे अभिनेताओं के मुकाबले वो आज भी आधुनिक दिखायी पड़ते हैं।
फिल्मों में उन्होंने कई किरदार निभाए जो लोगों के जेहन में बसे हुए हैं। लोगों ने कभी उन्हें राजू गाइड कहा तो कभी ज्वेल थीफ। उन्होंने खुद भी कहा – जॉनी मेरा नाम। लेकिन फिल्मी दुनिया के वो ऐसे गिने चुने कलाकारों में शामिल रहे जिन्हें इंडस्ट्री ने देव साहब कहा। ये लोगों का उनके लिए प्यार और सम्मान ही था जो लोग उनके नाम के साथ साहब लगा कर बुलाते थे। इंडस्ट्री के बहुत कम कलाकारों को ऐसा सम्मान मिला है।
देवानंद का पूरा नाम असल में धरम देव आनंद था। उनके पिताजी उन्हें प्यार से देवन पुकारते थे। स्कूल और कॉलेज में वो दोस्तों के बीच डीडी के नाम से पहचाने जाते थे। डीडी दरअसल धरम देव को शार्ट करके बनता था। जब देव आनंद ने फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाने की सोची थी, तो उन्होंने अपने नाम के पहले अक्षऱ धरम को अपने नाम से हटा दिया। दरअसल उनको लगता था कि धरम देव आनंद जैसा नाम काफी भारी भरकम लगेगा और उनकी पर्सनैलिटी पर जंचेगा नहीं। देव उन्हें छोटा और स्वीट लगता था। आनंद उनके परिवार का सरनेम था। इसलिए वो सिर्फ देव आनंद बनकर उस समय की बम्बई पहुंचे थे। हालांकि उनके सभी आधिकारिक प्रमाणपत्रों और कागजों में उनका नाम जीवन भर धरम देव आनंद ही रहा।
बाद में धीरे-धीरे वो इंडस्ट्री के लोगों के लिए देव साहब हो गए। देव आनंद ने अपने कई इंटरव्यू में खुद भी इसका कारण समझने की कोशिश की है। एक बड़ा कारण उन्हें ये लगता था कि पर्दे पर उनकी इमेज एक शहरी और आधुनिक नौजवान की रही। याद नहीं आता कि अपनी किसी फिल्म में उन्होंने गांव का पहनावा पहने किसी देहाती-गंवार की भूमिका निभायी हो। अपनी असल जिन्दगी में भी वो अपनी पर्दे की छवि से कहीं ज्यादा आधुनिक थे। उन्होंने लाहौर कॉलेज से इंग्लिश लिटरेचर में बीए किया था और अंग्रेजी भी वो किसी इंग्लिशमैन की तरह ही बोलते थे। अपनी आत्मकथा में भी देव आनंद ने इस बात की चर्चा है। उनका मानना था उनको देव साहब बुलाए जाने का एक कारण ये भी हो सकता है कि देवानंद ने काफी कम उम्र में अपनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी नवकेतन की स्थापना कर दी थी। सन् 1949 में उन्होंने नवकेतन की स्थापना की और फिर नवकेतन ने एक से एक सफल फिल्में दी। ऐसे में वो लोगों के पास काम मांगने नहीं जाते बल्कि लोगों को काम देते। वो खुद अपने बॉस थे। उनकी फिल्मों ने हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री को पॉपुलर बनाया। इन तमाम कारणों ने ही शायद देव आनंद को देव साहब बना दिया। इस बात का महत्व आप यूं भी समझ सकते हैं कि सुपरस्टार होने के बाद भी राजेश खन्ना या अमिताभ बच्चन के नाम के साथ साहब नहीं लग सका। यहां तक कि शाहरुख, आमिर और सलमान खान जैसे सितारों के नाम के आगे भी साहब नहीं लगता। देव आनंद उन चुनिंदा सितारों में शामिल हैं जिन्हें लोगों का ऐसा प्यार और सम्मान हासिल हुआ। देव साहब नाम से वो इतने पॉपुलर थे कि आज विकीपीडिया भी उनके परिचय में उनके अन्य नाम के कॉलम में देव साहब लिखता है।
हालांकि देव आनंद को अपने लिए देव नाम ही सबसे प्यारा लगता था और उनके खास दोस्त उन्हें सिर्फ देव ही पुकारते थे।