‘बांझ’ में हैं स्त्री-मन की बातें-सुष्मिता मुखर्जी

दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से निकलने के बाद हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री का रुख करने वाली अदाकारा सुष्मिता मुखर्जी ने दसियों फिल्मों और टी.वी. धारावाहिकों में काम किया। टी.वी. धारावाहिक ‘करमचंद’ में जासूस करमचंद बने पंकज कपूर की सेक्रेटरी किटी’ और रोहित शैट्टी की ‘गोलमाल’ में अंधी दादी के किरदार तो उनके अभिनय की बानगी भर हैं। अभिनेता-निर्देशक राजा बुंदेला की पत्नी सुष्मिता इन दिनों सोनी टी.वी. पर आ रहे अपने धारावाहिक ‘दोस्ती अनोखी’ में अभिनय के साथ-साथ लेखन व सामाजिक कामों में भी मसरूफ रहती हैं। अपने पहले अंग्रेजी उपन्यास ‘मी एंड जूही बेबी’ के बाद 2021 में उनका कहानी-संग्रह ‘बांझ’ आया जिसका हिन्दी अनुवाद हाल ही में रिलीज हुआ है। दिलचस्प बात यह है कि वरिष्ठ फिल्म समीक्षक व पत्रकार दीपक दुआ ने इस किताब का हिन्दी में अनुवाद किया है।

सुष्मिता अपनी इस किताब के बारे में कहती हैं, ‘मेरी यह किताब ‘बांझ’ असल में 11 लघु कहानियों का संग्रह है जिसमें से एक कहानी का नाम ‘बांझ’ है। लिखने का शौक तो मुझे हमेशा से ही रहा है लेकिन एक्टिंग और दूसरे कामों में व्यस्त रहने के चलते नियमित रूप से लिखना नहीं हो पाता था। इनमें से जो पहली कहानी है वह शायद मैंने 40 साल पहले लिखी होगी और जब-जब मेरे जेहन में कहानियां आती गईं, मैं उन्हें लिख कर रखती चली गई। अब जाकर मुझे यह लगा कि मुझे इनका एक कलैक्शन लाना चाहिए।’

इन कहानियों में किस तरह की बातें हैं? पूछने पर सुष्मिता कहती हैं, ‘इन कहानियों के जरिए मैंने स्त्री-मन की बात सामने लाने की कोशिश की है। लगभग सभी कहानियां स्त्री केंद्रित हैं और इनके जरिए मैं यह कहने की कोशिश कर रही हूं कि औरतों के बारे में हमारी सोच एकतरफा है जिसे बदलने की जरूरत है। ये कहानियां आपको कभी सोचने पर मजबूर करेंगी तो कभी सुकून देंगी। कभी आपको इनके किरदारों से चिढ़ होगी तो कभी सहानुभूति। इन्हें पढ़ कर कभी आप बेचैन होंगे तो कभी शांत। लेकिन ये कहानियां इस बात को स्थापित करती हैं कि एक स्त्री का महत्व समाज द्वारा उस पर लगाए गए ठप्पों से कहीं अधिक है।’

‘बांझ’ के हिन्दी संस्करण को लेकर बेहद उत्साहित सुष्मिता का कहना है, ‘ मेरे फिल्म समीक्षक मित्र दीपक दुआ ने केवल अंग्रेजी संस्करण को हिन्दी में लाने का सुझाव दिया बल्कि मेरे आग्रह को स्वीकार करते हुए हिन्दी में उसका अनुवाद करने और यहां तक कि उसे संपादित करने का बीड़ा भी उठाया। दीपक ने इन कहानियों को कहीं-कहीं थोड़ा-सा बदला है और मैं पाती हूं कि इससे इन कहानियों का असर और अधिक गाढ़ा ही हुआ है। मैं उनकी आभारी हूं और यह उम्मीद करती हूं कि हिन्दी के पाठकों को यह किताब बहुत पसंद आएगी।’

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