कामाख्या में दुर्लभ कुंभ योग, 12 वर्षो में एक बार आता है ऐसा योग
भारतीय संस्कृति लाखों वर्षों की निरंतरता का अप्रतिम उदाहरण है। “उठ-उठ कर हम गिरे-उठें फिर, मां बस यह वरदान चाहिए”- इस गीत के बोल में देश के धर्मपरायण, आस्थावान लोगों ने जगतजननी मां जगदंबा से पुन: अपने गौरव को पाने की कामना की है। इस महान सनातन संस्कृति ने प्रकृति प्रदत्त जिस धर्मध्वजा को अनेकानेक संकटों का सामना करते हुए सदैव ऊंचा रखा है उसमें कुंभ की परंपरा का विशिष्ट योगदान है।
ऐसा ही एक कुंभ चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की त्र्योदशी, चतुर्दशी और अमावास्या (19-20-21 मार्च, 2023) के बीच मां कामाख्याधाम के अंचल में ब्रह्मपुत्र नदी में लगने जा रहा है. हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में होने वाले कुंभ के अतिरिक्त प्राचीन काल में देश के आठ अन्य स्थानों पर भी कुंभ की परंपरा थी. कामाख्या कुंभ उन्ही में से एक है. शताब्दियों बाद इसका पुनर्जागरण होगा.
सनातन संस्कृति के महान आर्ष ऋषियों-मनीषियों ने अखंड भारत में विशिष्ट स्थानों पर पावन तीर्थों, पुरियों, ज्योतिर्लिंगों और शक्तिपीठों के रूप में साधना के अचल केन्द्रों के प्रति जन सामान्य को जागृत किया। इसके साथ ही अतींद्रिय शक्ति से युक्त उन महापुरूषों ने अपने महान राष्ट्र की विशालता को देखते हुए शास्त्रोक्त ज्योतिषीय विधान के आधार पर देश के अलग-अलग 12 स्थानों पर लगने वाले कुंभ के प्रति भी जनसामान्य को प्रेरित किया। सनातन संस्कृति के उद्भव विकास के साथ प्रारंभ हुई कुंभ पर्व की व्यवस्था सहस्त्रों वर्षों तक अबाध चलती रही। लाखों-करोड़ों लोगों के समागम वाले इस कुंभ ने देश की एकता-अखंडता, सौहार्द-समृद्धि, राष्ट्र की सुरक्षा और धर्म की स्थापना में अद्भुत योगदान दिया है। संभवतः कुंभ भारतीय संस्कृति का सबसे विस्तृत और सबसे प्रकट प्रारूप है। संपूर्ण पृथ्वी पर किसी एक विचार को लेकर इतनी विशाल संख्या में मानव समाज किसी और अवसर पर एकत्र नहीं होता। यह पूरी दुनिया के लिए किसी अचरज से कम नहीं।
ऐसे ही कुंभ में एक विदेशी पत्रकार ने जानना चाहा कि आखिर इतने लोगों को एक स्थान पर निमंत्रण देकर कैसे बुलाया जाता है? इसका उत्तर सुनकर पत्रकार महोदय अचरज में आ गए। ज्योतिष के जानकार एक विद्वान ने उन्हें बताया कि हमारे यहां एक पतरा-पंचांग होता है जिसमें कुंभ की तिथि पहले ही लिख दी जाती है। सब उसी पंचांग को देखकर स्वयं ही नियत समय पर निश्चित स्थान पर आ जाते हैं। यह सच भी है कि पंचांग आज भी सनातन जीवनचर्या का दिशा-निर्देशक और मानक है. ज्योतिष को वेद के छह अंगों में से एक माना गया है. पंचांग उन्हीं ज्योतिषीय गणना पर आधारित है.
यहां पंचांग और ज्योतिष का उल्लेख आया है तो यह जानना रोचक है कि शास्त्रों के अनुसार जब सूर्य, चंद्रमा और वृहस्पति एक ही राशि में आते हैं तो ज्योतिष में उसे कुंभ योग कहते हैं। इस अनुसार राशियां 12 हैं, आदित्य या सूर्य भी 12 हैं और महीने भी 12 हैं। इस गणना से सूर्य, चंद्रमा और वृहस्पति 12 वर्षों में 12 बार ऐसा योग बनाते हैं। शास्त्र प्रमाण हैं कि ज्योतिषीय गणना के अनुसार किसी समय भारत में 12 स्थानों पर कुंभ पर्व (आयोजन) की व्यवस्था थी।
धर्म सम्राट करपात्री जी महाराज ने प्रसिद्ध ग्रंथ- ‘कुंभ पर्व निर्णय’ में 12 कुंभों का स्पष्ट उल्लेख किया है-
देवानां द्वादश होभिर्मात्यद्वादशवत्सरैः ।
कुम्भ पर्वानि जायन्ते तथा द्वादश संख्यया ।’ –
अर्थात देवों के द्वादश (12 दिन), पृथ्वीलोक का 12 वर्ष होता है।
इसीलिए कुम्भ पर्व द्वादश यानी 12 संख्या में हैं।
इन द्वादश कुम्भयोग एवं द्वादश स्नान के विषय में रुद्रयामल तंत्र के रूद्रयामलोक्तमृतीकरण प्रयोग अध्याय में शिव-पार्वती संवाद के रूप में जिन स्थानों पर जिस मास में जिस राशि में सूर्य चंद्रमा और वृहस्पति के योग से कुंभ की शास्त्रोक्त परंपरा रही उसका स्पष्ट वर्णन इस प्रकार है:
देवाश्चागत्य मज्जन्ति तत्र मासं वसन्ति च।
तस्मिन् स्नानेन दानेन पुण्यमक्षद्यमाप्नुयात्॥
सिंहे युतौ च रेवत्यां मिथुने पुरुषोत्तमे।
मीनभे ब्रह्मपुत्रै च तव क्षेत्रे वरानने ॥
धनुराशिस्थिते भानी गंगासागर संगमे ।
कुम्भराशी तु कावेच्य तुलार्के शाल्मलीवने ॥
वृश्चिके ब्रह्मसरसि कर्कटे कृष्य शासने।
कन्यायां दक्षिणे सिन्धी यात्राहं रामपूजिताः ॥
अथाप्यन्योऽपि योगोस्ति यत्र स्नाने सुधोपमाम्।
मेषराशिस्थिते भानौ कुम्भे चैव गुरौ स्थिते ॥
गंगाद्वारे भवेद्योगो भुक्ति मुक्ति प्रदः शिवे।
मेष गुरौ तथा देवि! मकरस्थे दिवाकरे॥
त्रिवेण्यां जायते योगः सद्योऽमृत फलं लभेत।
क्षिप्रायां मेघगे सूर्यो सिंहस्थे च बृहस्पतौ ।।
मासं यावन्नरः स्थित्वाऽमृतत्वं यान्ति दुर्लभम् ॥
अर्थात्, सूर्य, चन्द्र एवं बृहस्पति के सिंह राशि में आने पर नासिक (महाराष्ट्र) में, मिथुन राशि में जगन्नाथ (ओडिशा) में, मीन राशि में ब्रह्मपुत्र (कामाख्याधाम, आसाम) में, धनुराशि में गंगासागर (बंगाल) में, कुम्भराशि में कुम्भकोणम् (तमिलनाडु) में, तुलाराशि में शाल्मलीवन अर्थात सिमरियाधाम (बेगूसराय, बिहार) में, वृश्चिक राशि में कुरूक्षेत्र (हरियाणा) में, कर्क राशि में द्वारका (गुजरात) में, कन्या राशि में रामेश्वरम में, मेषार्क – कुम्भराशिगत बृहस्पति में हरिद्वार (उत्तराखण्ड) में, मकरार्क- मेषराशिगत बृहस्पति में प्रयाग (उत्तरप्रदेश) में, एवं मेषार्क-सिंहस्थ बृहस्पति में उज्जैन (मध्यप्रदेश) में कुम्भयोग होता है। इन सभी तीर्थस्थानों में अमृतपद के संयोग से जल अमृतमय कहा गया है। अतएव इन स्थानों में स्नान, दान, दर्शन मार्जन, जप, पूजन एवं विविध धर्मानुष्ठान से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
अब जैसे दक्षिण के प्रदेश तमिलनाडु में स्थित कुंभकोणम में कुंभ लगा करता था और इसी कारण उसका नाम ही- ‘कुंभकोणम’ पड़ा। कुरुक्षेत्र में जब मां सरस्वती अपने वेग के साथ प्रवाहमान रही तब वहां भी कुंभ का आयोजन होता रहा। इसी प्रकार द्वारिकापुरी, जग्गनाथपुरी, गंगासागर औऱ रामेश्वरम में भी किसी समय कुंभ लगा करते थे. ऐसे ही एक पावन क्षेत्र बिहार में गंगा नदी के किनारे बसे मिथिलांचल में स्थित सिमरियाधाम को आदि कुंभ स्थली के रूप में पुनर्प्रतिष्ठित किया गया है. कालांतर में विदेशी आक्रांताओं के प्रभाव में पूरा देश अस्त-व्यस्त हुआ। सनातन को समाप्त करने की कुटिल चाल चली गयी लेकिन धर्म रुपी जीवनी शक्ति के प्रभाव में इसे समाप्त करना कभी संभव नहीं हुआ। हां इतना अवश्य है कि इसमें विकृति आती, कई परंपराएं लुप्त हुई। 12 स्थानों की कुंभ की परंपरा भी इन्हीं कारणों से लंबे समय तक लगभग हर स्थान पर गौण हो गयीं। जिन चार स्थानों हरिद्वार, प्रमाण, उज्जैन और नासिक मेंआज कुंभ की मान्यता है किसी समय वहां भी कुंभ की परंपरा लगभग लुप्तप्राय हो गयी थी। प्रतापी राजा हर्षवर्धन ने लगभग 1500 वर्ष पूर्व इन स्थानों पर अपनी पूरी शक्ति लगाकर कुंभ की परंपरा को जागृत किया। लेकिन शेष आठ स्थानों पर यह परंपरा लुप्त ही रही।
दरअसल शास्त्रों में कई जगहों पर चार कुंभों को धरती पर, चार को देवलोक और चार को पालातलोक में बताया गया. लेकिन पाताललोक और देव लोक हैं कहा इसका विवरण नहीं दिया गया. रूद्रयामल तंत्र के 12 स्थानों के विवरण से स्पष्ट हुआ कि पाताललोक के रूप में समुद्रतट पर बसे रामेश्वरम, गंगासागर, द्वारिकापुरी और जन्नाथपुरी का स्थान है और देवलोक के रूप में शक्तिपीठ मां कामाख्याधाम, मंदिरों का शहर कुंभकोणम, महाभारत की भूमि कुरूक्षेत्र और आदिकुंभस्थली सिमरियाधाम आता है.
हजारों वर्षों के बाद मिथिलांचल, बिहार की भूमि के एक संत करपात्री, अग्निहोत्री परमहंस स्वामी चिदात्मन जी महाराज ने विद्वतजनों से इसका उल्लेख किया तो इसके पुनर्जागरण को लेकर सभी की सहमति बनी। कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विवि, मिथिला विवि और काशी हिन्दू विवि के विद्वानों ने विवि के विद्वत परिषद की बैठक में 12 स्थानों पर कुंभ के पुनर्जागरण की संस्तुति प्रदान की। दरभंगा संस्कृत विवि पंचांग, वैदेही पंचांग, महावीर पंचांग एवं सर्वमंगला पंचांग में कुंभ के शास्त्रोक्त उल्लेख के बाद जन सामान्य को इसकी जानकारी हुई।
द्वादश कुंभ पुनर्जागरण अभियान के तहत सर्वप्रथम गंगा तट पर स्थित सिमरियाधाम में वर्ष 2011 में अर्धकुंभ का आयोजन हुआ जो अतीव सफल रहा। यह जानना भी रोचक है कि समुद्र मंथन की केन्द्रीय भूमि के रूप में मिथिलांचल की पुनर्प्रतिष्ठा हुई। जिस बुसुकी नाग (बासुकीनाथधाम) की सहायता से समुद्र मंथन किया गया और जिस मंदार पर्वत को मथनी बनाया गया उनकी दूरी सिमरियाधाम से कुछ 150-200 किलोमीटर के आसपास है. मंदार पर्वत पर मोटी रस्सी के 1.5 से 2 फीट के स्पष्ट निशान आज भी देखे जा सकते हैं.
यह भी मान्यता है कि समुद्र मंथन के बाद सिमरियाधाम में ही अमृत का वितरण हुआ। कुंभ पुनर्जागरण की इसी कड़ी में वर्ष 2013 में जगन्नाथपुरी, 2014 में द्वारिकापुरी, 2016 में रामेश्वरम, 2017 में सिमरियाधाम में महाकुंभ, 2018 में कुरूक्षेत्र में कुंभ, 2019 में गंगासागर और वर्ष 2020 में कुंभकोणम में कुंभ की ध्वज पताका पहुंची. द्वादश कुंभ पुनर्जागरण के प्रेरणा पुरुष करपात्री अग्निहोत्री परमहंस स्वामी चिदात्मन जी महाराज के आशीर्वाद से यथाशक्ति इन स्थानों पर कुंभ परंपरा के पुनर्जागरण का पावन कार्यक्रम हुआ। इस सभी स्थानों पर स्थानीय विद्वानों और धार्मिक समाज का सहर्ष, सुंदर सहयोग प्राप्त हुआ।
इस वर्ष 2023 के चैत्र मास में ऐसा ही योग शक्तिपीठों में सर्वोपरि मां कामाख्याधाम में ब्रह्मपुत्र नदी के समीप है। ढाई दिनों का यह विशेष योग
रविवार 19 मार्च प्रात: 9 बजकर 22 मिनट से 21 मार्च मंगलवार सायं 7 बजकर 58 मिनट तक है. यह योग ज्योतिषीय गणना पर आधारित और शास्त्रोक्त है। इस योग में जलराशि में स्नान का बड़ा महत्व बताया गया है। मां कामाख्याधाम में ब्रह्मपुत्र नदी को समीप ऐसा योग पुन: 12 वर्षों के बाद 2035 में आएगा.
बताते चलें कि वर्ष 2023 के अक्टूबर-नवंबर में सिमरियाधाम में अर्धकुंभ का आयोजन होगा. ठीक 12 वर्ष पूर्व 2011 में आदिकुंभस्थली में अर्धकुंभ का आयोजन हुआ था. द्वादशकुंभ पुनर्जागरण की वो पहली कड़ी थी. एक अनुमान के अनुसार 2011 के अर्धकुंभ में 42 दिनों के अंतराल में लगभग 90 लाख लोग सिमरियाधाम पधारे थे. इस बार भी बड़ी संख्या में लोगों के सिमरियाधाम आने की उम्मीद है.